Monday 23 October 2023

पहाड़ों और नदियों संग हँसता-खिलखिलाता सफ़र

पहाड़ों की घुमक्कड़ी इस यात्रा के पहले भी हो चुकी थी, बावजूद इसके पहाड़ों को फिर से नजदीक से देखने का मन कर गया. अकादमिक यात्रा के साथ-साथ घुमक्कड़ी भरी यात्रा के लिए पहले तो कई साथी तैयार हुए मगर धीरे-धीरे कई मित्र अपनी-अपनी व्यस्तताओं के चलते अपनी-अपनी जगह ही बने रहे. कई मित्रों के साथ बनी योजना के बाद अंततः त्रिमूर्ति (ऋचा, अरुण और हम) ने पिथौरागढ़ की अपनी अकादमिक सह घुमक्कड़ी यात्रा का आरम्भ किया. India’s Security Threats विषय पर आयोजित नेशनल सेमीनार में सहभागिता के लिए चली त्रिमूर्ति के अपने-अपने शोध-पत्र भी अलग-अलग सत्रों में प्रस्तुतीकरण के लिए चयनित थे. कोरोना की जबरदस्त तालेबंदी के चलते लम्बे समय बाद किसी अकादमिक आयोजन में सहभागिता का भी एक उत्साह बना हुआ था. हल्द्वानी तक रेल के सफ़र के बाद टैक्सी के माध्यम से पहाड़ों के बीच से लहराते-झूमते पिथौरागढ़ तक जाना था. पहाड़ी सफ़र की संभावित परेशानियों से निपटने की तैयारियों के साथ सुबह-सुबह हल्द्वानी रेलवे स्टेशन पर उतरना हुआ. 


बाएँ से - अरुण, ऋचा, कुमारेन्द्र 

हल्द्वानी रेलवे स्टेशन 

हल्द्वानी रेलवे स्टेशन पर ही दशकों पुराने परिचित चेहरों से मुलाकात ने यह इत्मीनान जगाया कि मैदानी क्षेत्र से दूर इस पहाड़ी स्थान पर आयोजित सेमीनार में परिचितों से मुलाकात हो जाएगी. इसके साथ ही रेलवे स्टेशन पर ही पहाड़ों ने हमारा स्वागत झाँकते हुए वाली मुद्रा में किया. हल्द्वानी रेलवे स्टेशन पर ही नेशनल सेमीनार के विषय विशेषज्ञों से मुलाकात और पहाड़ों के स्वागत ने पिथौरागढ़ की तरफ को बढ़ते कदमों में ऊर्जा भर दी. रात भर के सफ़र की थकान मखमली हवा के साथ-साथ पहाड़ों पर बिखरी हरियाली ने दूर कर दी. टैक्सी वाले ड्राईवर रवि ने पिथौरागढ़ तक जाने के दो रास्तों की जानकारी दी तो निर्धारित हुआ कि जाना एक रास्ते से और वापसी दूसरे रास्ते से की जाएगी. बस, फिर क्या था, चल दी हमारी कार हल्द्वानी से पिथौरागढ़ के लिए हम त्रिमूर्ति को लेकर. अपनी पहली यात्रा में ही रवि ने अपने स्वभाव से इतना प्रभावित किया कि अगले पाँच-छह दिन तक वही नियमित रूप से अपनी ड्राइविंग सेवा देता रहा.





यहाँ कार ने दौड़ना शुरू किया, वहाँ हमारे कैमरे ने, मोबाइल ने प्राकृतिक सौन्दर्य को कैद करने के लिए अपने आपको तैयार कर लिया. घुमावदार रास्तों का आना, पहाड़ों का पास आना और कभी दूर होना, रास्तों का कभी चढ़ाई वाला होना कभी जबरदस्त ढाल भरा होना रोमांचित कर जाता. कभी लगता कि आसमान, बादल पलक झपकते मुट्ठी में आ जायेंगे तो कभी लगता कि ढलान भरा रास्ता सीधे पाताल ले जाकर ही छोड़ेगा. दूरी के हिसाब से बहुत लम्बी यात्रा न होने के बाद भी अपने घुमावदार रास्तों, पहाड़ों की अनुशासित ड्राइविंग के चलते समय के हिसाब से बहुत लम्बी थी. सफ़र में कई जगह रुकते हुए चाय-नाश्ता-भोजन व्यवस्था का आनंद उठाया गया तो कई जगह पूरे इत्मिनान के साथ प्राकृतिक दृश्यों को आत्मसात किया गया. यहीं छुईमुई के पौधे और फूल ने भी मन मोहा.

छुईमुई का पौधा, फूल 





हरे-भरे पहाड़ों, बर्फ जैसे सफ़ेद बादलों, रंगीन मकानों, नीली-हरी नदियों के साथ घूमते-टहलते-हिलते-डुलते शाम को पिथौरागढ़ में अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना हुआ. स्नेहयुक्त, अपनत्व भरे आतिथ्य ने मन को, दिल को प्रफुल्लित कर दिया. सेमीनार के आयोजकों की स्नेहिल मुलाकात और भोजन व्यवस्था से अभिभूत होकर  होटल के टैरेस पर देर रात तक बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ-साथ पिथौरागढ़ की ठंडक, बादलों को घूँट-घूँट अपने भीतर उतारते हुए अगले दिन के सेमीनार के लिए ऊर्जा ग्रहण करते रहे. 


पिथौरागढ़ का नजारा होटल के टैरेस से 

(05 अक्टूबर 2022 को यात्रा उरई से कार से आरम्भ. 06 अक्टूबर 2022 की शाम पिथौरागढ़ पहुँचना हुआ.)

पिथौरागढ़ की शाम ने हम त्रिमूर्ति का स्वागत किया. ठंडक के बारे में जिस तरह का अनुमान था, वो अनुमान गलत साबित हुआ. (ऐसा हमारे व्यक्तिगत स्तर पर रहा, बाकी दोनों मित्रों ने वहाँ की गुलाबी-गुलाबी सी ठण्ड का पूरा आनंद लिया.) रास्ते भर की प्राकृतिक सुन्दरता को आत्मसात करने के बाद और नेशनल सेमीनार के आयोजकों के स्नेहिल स्वागत ने थकान को हावी नहीं होने दिया. चाय की चुस्कियों संग एक-दो पुराने परिचित भी मिले. पुरानी बातों को ताजा किया गया, भावी योजनाओं का खाका तैयार किया गया, अगले दिन आरम्भ होने वाले सेमीनार पर भी चर्चा की गई. गप्पों, ठहाकों, किस्सों, अनुभवों आदि के बीच पिथौरागढ़ की रात टैरेस से उतरती हुई कमरों में प्रवेश करके समय का एहसास कराने लगी. 




सुनहली धूप ने कमरे की खिड़कियों से दबे पाँव प्रवेश करते हुए अपने प्रथम दर्शन दिए. समझ नहीं आ रहा था कि वो हम लोगों को वहाँ देखकर आह्लादित थी या कि हम लोग उसे देख? होटल के टैरेस से दिखने वाले दृश्य अपनी तरफ खींचते तो सेमीनार आयोजकों के बार-बार आते फोन ध्यान दिलाते कि तैयार होकर समय से सेमीनार पहुँचना है. जिस कार्य के लिए आना हुआ था, उसे करना अनिवार्य था मगर जिस कार्य को द्वितीयक स्थिति में बना रखा था वो अपनी तरफ खींचने में लगा था. दिल-दिमाग की ऊहापोह को समाप्त करते हुए उसी कार्य को वरीयता दी, जिसके लिए पिथौरागढ़ आना हुआ था. वैसे सेमीनार में उपस्थिति का भी अपनी तरह का एक अलग लालच था. नए-नए लोगों से मुलाकात-परिचय के साथ-साथ पुराने परिचित लोगों से पुनः भेंट का लोभ संवरण नहीं हो रहा था.




निश्चित समय पर सेमीनार आयोजकों द्वारा कार भेजकर सेमीनार स्थल तक पहुँचने की सुविधा प्रदान की गई. एक बात यहाँ आप सबको शायद आश्चर्यजनक लगे, पिथौरागढ़ में किसी भी तरह का स्थानीय यातायात वाहन सुविधा नहीं है. इसका कारण ऊँची चढ़ाई और गहरी ढलान है. हमारे टैक्सी ड्राईवर ने बताया कि किसी समय यहाँ ऑटो चलना शुरू हुए थे मगर चढ़ाई पर नाकाम रहने के कारण उनसे दुर्घटना होने की आशंका पैदा हो गई थी. इस कारण प्रशासन ने उनका परिचालन बंद करवा दिया. बहरहाल, आयोजकों की सहृदयताविशेष रूप से मनोज और उनके साथियों के चलते हम तीनों लोग निश्चित समय पर कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गए. LSM महाविद्यालय को अल्मोड़ा विश्वविद्यालय का कैंपस बनाए जाने के बाद यह पहला नेशनल सेमीनार था. रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन विभाग और कला संकाय द्वारा आयोजित नेशनल सेमीनार से जुड़े सभी लोगों में गज़ब का उत्साह देखने को मिल रहा था.


डॉ. अशोक कुमार सिंह 

पुराने विषय विशेषज्ञों के साथ 

डॉ. शेर बहादुर सिंह 

सामान्य सी औपचारिकताओं के साथ अपने निर्धारित समय से उद्घाटन सत्र का आरम्भ हुआ. पुराने परिचित विषय विशेषज्ञों को देखकर अच्छा लगा और उससे अधिक सुखद अनुभूति तब हुई जबकि उनके द्वारा एक लम्बे समयांतराल के बाद भी हमें पहचान लिया गया. ऋचा और अरुण तो रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन से जुड़े होने के कारण वहाँ आये लगभग सभी विषय विशेषज्ञों से परिचित थे मगर विषय से इतर होने के बाद भी हमको पहचाने रहना वाकई प्रसन्नता देने लायक अनुभूति रही. (इस बारे में किसी और पोस्ट में चर्चा की जाएगी.) मंच से डॉ. अशोक कुमार सिंह सर और डॉ. शेर बहादुर सिंह सर द्वारा द्वारा अपने उद्बोधन में हम तीनों लोगों को नाम से सम्बोधित करना गौरवान्वित कर गया. अपने-अपने निर्धारित सत्र में हम तीनों लोगों ने अपने-अपने शोध-पत्रों को प्रस्तुत किया. ऋचा एवं अरुण के शोध-पत्र का विषय अपने आपमें अलग होने के कारण तारीफों से लदे रहे. जाहिर सी बात है कि विषय से इतर होने के कारण हमें हमेशा की तरह अलग से कुछ ज्यादा ही तारीफें मिलनी थीं, सो मिली हीं. वैसे हम सभी को इस बारे में ध्यान रखना चाहिए कि हम सभी किसी न किसी रूप में रक्षा सम्बन्धी विषय से जुड़े रहते हैं. इसे किसी एक विषय के सापेक्ष नहीं बाँधा जाना चाहिए. जैसे, हमारा शोध-पत्र साइबर क्राइम से सम्बंधित था. क्या इसे किसी एक विषय से सम्बंधित माना जा सकता है? क्या इसे सिर्फ रक्षा अध्ययन विषय का टॉपिक स्वीकारा जाये? क्या ये आमजन का विषय नहीं?


डॉ. ऋचा सिंह राठौर 

डॉ. अरुण सिंह 

डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 

सेमीनार के पहले दिन के समापन पर सभी शुभेच्छुओं का स्नेह भी मिला, हमारे अपने साथियों का स्नेह तो हमेशा की तरह मिला. सभी का स्नेह अपनी छोटी सी पोटली में सँभालते-सुरक्षित रखते हुए वापस होटल लौट आये. मैदानी और पहाड़ी दिनों का अंतर स्पष्ट समझ आ रहा था. शाम के छह बजे होने के बाद भी होटल के आसपास सन्नाटा पसरने का मन बना रहा था. देर रात सोने की आदत के कारण ऐसा होना किसी जेल जैसा लगने लगा. आनन-फानन अपनी टैक्सी वाले रवि को फोन करके कहीं घुमाने ले चलने के लिए कहा तो उसने सात बजे इस कथित जेल से बाहर ले जाने का समय दिया. अपने निश्चित समय पर उपस्थित टैक्सी ड्राईवर ने गाड़ी को चंडाक की तरफ दौड़ना शुरू किया. पूरे पिथौरागढ़ में स्थानीय स्तर पर यही ऐसा स्थान है जिसे रात में घूमने पर मजा भी है, रिस्क भी है. मजा इसलिए क्योंकि यहीं से पूरा पिथौरागढ़ रौशनी में जगमगाता दिखता है और रिस्की इसलिए क्योंकि सबसे ऊपर होने के कारण बाघ-चीते आसानी से सड़क पर टहलते दिख जाते हैं.



शाम से ही सोने से बेहतर इसी पहाड़ी पर घूमना बेहतर लगा सो बिना किसी डर के चंडाक की तरफ दौड़ पड़े. ऊँची पहाड़ी पर दौड़ती कार के साथ-साथ ड्राईवर द्वारा स्थानीय जानकारियाँ भी साथ-साथ दौड़ती रहीं. एक दिन पहले उसी रास्ते पर निकले चीते का वीडियो देखने के बाद लगा कि कम से कम इसी के दर्शन हो जाएँ. बातचीत, हँसी-मजाक के बीच जब कार रुकी तो लहराता-फहराता तिरंगा देखकर मन प्रसन्न हो उठा. सीमित संख्या में लोगों की भीड़ और अनजान जगह देखकर मन एक पल को सकुचाया मगर तिरंगे के फहराने ने आत्मविश्वास, आत्मबल को कम न होने दिया. पहाड़ी के उस मोड़ से पिथौरागढ़ के एक हिस्से को जगमगाता देखा. मोबाइल में, कैमरे में कैद करने के बाद हम लोग पिथौरागढ़ के दूसरे हिस्से की रौशनी को कैद करने और आगे चल दिए.


पहाड़ी के सबसे ऊपरी स्थान पर बने एक होटल में रुकने के पहले ड्राईवर ने हम सभी को वहीं पहाड़ी पर बने मोस्टमानू मंदिर के दर्शन भी करवाए. (इस मंदिर के बारे में आगे बाद में) मंदिर के बाहरी दर्शन हमने किये और भीतरी दर्शन का लाभ ऋचा और अरुण ने उठाया. इस दौरान रात के अंधकार में फोटोग्राफी होती रही. मन में बाघ-चीता देखने का ख्याल आता रहा. अंधियारी रात के रास्ते में लौटते हुए भी बाघ-चीते शायद तीन-तीन शेर-शेरनी के डर के मारे बाहर न निकले. हम तीनों लोग उसी पहाड़ी पर बने प्रसिद्ध होटल में खाना-पीना करने के साथ ही वापस अपने होटल आ गए. अब मन में अगले दिन की योजना पर वास्तविक रूप से काम करना था. नेशनल सेमीनार का समापन दिवस और पहाड़ों पर कहीं घूमना. होटल पहुँचकर चाय को निमंत्रण दिया और होटल के टैरेस पर चुस्कियों के साथ अगले दिन की योजना पर काम किया जाने लगा. 


चाय की चुस्की के बीच में चंडाक से चमकते पिथौरागढ़ की, बाघ न दिखाई पड़ने की बातें होती रहीं, काल्पनिक किस्से गढ़ते हुए हँसी-ठहाके लगते रहे. जल्दी सोने की और सुबह जल्दी उठने की मजबूरी के बीच बिस्तर पर जाने का मन नहीं हो रहा था. आखिर गप्पबाजी का अपना ही अलग स्वाद होता है, जिसे हम मित्र भरपूर तरीके से ले रहे थे. जल्दी सोने-जागने की मजबूरी ये थी कि सुबह-सुबह मुनस्यारी के लिए कार दौड़ाना थी. असल में शालीन, स्वस्थ हास-परिहास के साथ पहले दिन का जब समापन हुआ तो हँसी-मजाक के दौर में भाँग की चटनी से शाब्दिक परिचय हुआ. रात को खाने में इसे बनवाए जाने का मौखिक आदेश भी पारित हुआ. हँसते-गुनगुनाते आसपास के घूमने-फिरने के स्थानों के बारे में जानकारी की तो बहुसंख्यक लोगों ने पिथौरागढ़ से सवा सौ किमी दूर मुनस्यारी जाने की सलाह दी. मुनस्यारी के आगे सभी पर्यटक स्थलों को लगभग बौना साबित करने की बातों ने अंततः वहीं जाने पर अंतिम मुहर लगा दी. कम दूरी होने के बाद भी बहुत अधिक समय इसलिए लगना था क्योंकि वहाँ का रास्ता अत्यधिक चढ़ाई वाला और खतरनाक मोड़ों से भरा हुआ था. 




नए-पुराने मित्रों संग होती हाहा-हीही को बेमन से विराम देते हुए निद्रादेवी के आगोश में जाने की तैयारी में जुट गए. जागते-सोते बीती रात के जाते-जाते एलार्म ने जागने का निमंत्रण भेजा तो कुछ देर में कार ड्राईवर रवि ने फोन करके अपनी तत्परता का परिचय दिया. जो समय निश्चित किया गया था, उसी समय पर कार मुनस्यारी के रास्ते दौड़ चली. चूँकि जगह हम तीनों मित्रों के लिए एकदम नई और अपरिचित थी. ऐसे में सेमीनार के आयोजक मंडल को इस यात्रा के बारे में जानकारी दे दी थी. पिछले दो दिनों से पूरे स्नेहिल भाव से सेवा-भावना के साथ तत्पर शोधार्थी मनोज इस यात्रा में हम लोगों के साथ ऑनलाइन मोड में जुड़े रहे.


कार को आरामदायक स्थिति में चलाते हुए ड्राईवर रवि हम लोगों के गाइड भी बने रहे. दो-तीन दिनों से हम लोगों के साथ नियमित रूप से बने रहने के कारण वो हमारे फोटोग्राफी के शौक को समझ चुका था. ऐसे में रास्ते में कहीं कोई इस तरह की जगह आने को होती, जहाँ फोटोग्राफी की जा सकती तो वो ‘फोटोग्राफर तैयार हो जाएँ’ को हँसते-मुस्कुराते कहकर कार को सड़क किनारे रोक देता. वैसे तो पूरा रास्ता रोमांच से भरा हुआ था. तीव्र मोड़, ऊँची चढ़ाई, गहरी घाटियाँ आदि एक तरफ अपनी ओर आकर्षित भी करतीं तो भीतर-भीतर सिरहन भी पैदा कर देतीं. कुछ माह पूर्व बरसात के मौसम में हुए भूस्खलन का असर सड़क पर जगह-जगह दिखाई दे रहा था. बादलों, हरियाली, जगह-जगह पहाड़ों से बहते पानी, छोटे-छोटे से झरनेनुमा स्थानों से गुजरते हुए कार एक ढाबे जैसी जगह पर रुकी. कार रुकने के पहले ही फोटोग्राफर को संकेत मिल चुका था और उस स्थान से काफी दूर पहले एक मोड़ से एक झरने को दिखाया भी जा चुका था.


बिर्थी फॉल 

कार से उतरते ही चाय की माँग के साथ कदम अपने आप आसमान से बहते झरने की तरफ बढ़ चले. बिर्थी फॉल के नाम से प्रसिद्ध यह जलप्रपात मुनस्यारी से टीस-चालीस किमी पहले पड़ता है. लगभग चार सौ फुट की ऊँचाई से गिरते पानी की बौछार से कैमरे को बचाते हुए झरने को कैद किया जा रहा था. सड़क किनारे बनी दुकान की छत पर बैठकर न केवल झरने को कैमरे में कैद किया बल्कि चाय की चुस्कियों के साथ हम मित्र भी कैमरे की कैद में आ गए. अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य की गोद से न चाहते हुए भी निकल कर कालामुनि पर्वत के रास्ते होते हुए मुनस्यारी की तरफ चल दिए.





कालामुनि पर्वत के बारे में ड्राईवर ने बताया कि एक ही पहाड़ पर बीस से अधिक घुमाव बने हुए हैं और सभी घुमाव पहाड़ के एक तरफ ही बने हुए हैं. रास्ते में जगह-जगह Hairpin Bends लिखे संकेतक दिल की धड़कन बढ़ा देते. रास्ते भर बादल लुकाछिपी करते रहे और अंत में मुनस्यारी प्रवेश करने के ठीक पहले बरसने ही लगे. मुनस्यारी में रुकने के लिए एक तरफ होटल तो बने ही हैं साथ ही स्थानीय निवासी होम स्टे जैसी सुविधा भी बनाये हुए हैं. ड्राईवर की सलाह पर हम लोगों ने उसके एक परिचित होम स्टे में रात्रि विश्राम का मन बनाया. वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते बारिश अपने पूरे रंग में आ गई. अंतिम रूप से होम स्टे को सहमति देने के पहले कमरों की, जगह की, सम्बंधित व्यक्तियों की स्थिति को जाँचना उचित लगा. बरफ से ढंके जिन पर्वतों का चित्रण, वर्णन पिथौरागढ़ में लोगों ने कर रखा था, वे पर्वत आँखों के ठीक सामने खड़े हुए थे. कमरों की दशा पर एक निगाह डालकर छत पर गरमागरम चाय के साथ बारिश का, सामने खड़े पहाड़ों का रसास्वादन करने लगे.




होम स्टे और भोजन पर अपनी सहमति देने के बाद हम लोग बारिश का आनंद लेने के लिए कार से ही मुनस्यारी के स्थानीय बाजार के लिए निकल लिए. सूर्यास्त की लालिमा के साथ रंग बदलते आसमान, बादल, पर्वतों ने खुलकर हम लोगों का स्वागत किया. वहीं बने एक संग्रहालय में स्थानीय कला, वस्तुओं आदि का नजारा लेते हुए शाम के रात में बदलने के पहले ही हम लोग विश्राम के लिए वापस लौट आये. बारिश अभी भी अपना स्वरूप बनाये हुए थी तो एक डर लगा कि अगली सुबह मुनस्यारी के उस सौन्दर्य के दर्शन हो भी सकेंगे जिसके बारे में लोगों ने बहुत ही ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बता रखा था. फिलहाल तो स्नान-ध्यान करके गरम-गरम चाय के साथ अनथक गप्पों का सिलसिला फिर शुरू हुआ. कमरे की खिड़की से सामने स्थित पंचाचूली की पाँच-पाँच पर्वत-श्रेणियाँ झाँकते हुए हम मित्रों की गपबाजी में शामिल होने को लालायित थीं. 

शाम के समय पंचाचूली पर्वत श्रेणियाँ 

होम स्टे वाले ने घर का बनाया बेहतरीन भोजन पूरे मन से करवाया. एक बात पूरी यात्रा में विशेष ये देखने को मिली कि यहाँ लोगों ने बहुत मन से आवभगत की. होटल वाले, ढाबे वाले चाय-नाश्ता भी ऐसे करवाते जैसे उनके यहाँ मेहमान बनकर आये हों. बारिश रात के नौ बजने पर भी हो रही थी. जिस तरह से वहाँ के मौसम के बारे में बताया गया था, उसके चलते शंका हुई कि सुबह पंचाचूली पर्वत श्रृंखला दिखाई भी देगी या नहीं? होम स्टे वाले ने बताया कि सुबह साढ़े पाँच-छह बजे तक उठ जायेंगे तो बहुत आराम से पंचाचूली के दर्शन हो जायेंगे. जो ठंडक हमारे लिए गुलाबी-गुलाबी सी बनी हुई थी उसी ने हमारे दोनों दोस्तों के लिए कड़ाके वाली ठंडक का एहसास बना रखा था. होम स्टे के कमरे की खिड़की से पंचाचूली पर्वत श्रेणी अभी निपट काली सी नजर आ रही थी. उसे बर्फ में लिपटी देखने की लालसा लिए नींद का रास्ता देखने लगे. 


पंचाचूली पर्वत श्रेणियाँ 

जैसा कि हमारे साथ बहुत लम्बे समय से हो रहा है, रात भर नींद का आना-जाना बना रहा. आँख खुलने पर एक निगाह खिड़की से सामने वाली पर्वतमाला पर डाल लेते और माहौल ज्यों का त्यों बना देखकर वापस नींद की राह ताकने लगते. कैमरा, मोबाइल भी एकदम तत्परता से मुस्तैद थे. उनको आदेशित कर रखा गया था कि किसी भी रूप में चूकना नहीं है. इससे पहले कि बादल पंचाचूली को अपने आगोश में लें, उसकी बहुत सारी फोटो और वीडियो निकाल लेना है. सुबह धुंधलके जैसी स्थिति में पंचाचूली नजर आने लगी. कहा जाता है कि पांडवों ने द्रोपदी सहित यहीं से स्वर्ग के लिए चलना शुरू किया था. वे लोग जब चले होंगे यहाँ से तब चले होंगे, हम लोगों ने अपने-अपने कैमरे, मोबाइल चलाने शुरू कर दिए.






समय के साथ-साथ रौशनी भी बढ़ती जा रही थी. सबसे बड़े पर्वत, जिसे युधिष्ठिर माना जाता है के सिर पर सुनहला मुकुट जैसा भी कुछ पल के लिए दिखाई देने लगा. उसके साथ-साथ बाकी पर्वत श्रेणियाँ भी सुनहले रंग की चादर ओढ़ती नजर आईं. ऊपर से सूरज की रौशनी में पंचाचूली का चमकना होता जा रहा था, नीचे से बादल उसे अपने आगोश में लेने के लिए ऊपर आते जा रहे थे. दो-दो, चार-चार मिनट में ऐसा लगता जैसे उसके रूप में परिवर्तन हो रहा है. इधर चाय के स्वाद ने सामने रजत पर्वत श्रृंखला को देखने का मजा और बढ़ा दिया. दो-तीन घंटे अपने कमरे के सामने बने टैरेस पर, ऊपर छत पर कब, कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. जब नीचे से ऊपर को चले आते बादलों ने पंचाचूली को पूरी तरह से अपने रंग में रंग लिया तो हम तीनों लोग भी अपने-अपने कमरों में आकर आगे की यात्रा की तैयारी में लग गए.


आगे की यात्रा वहीं स्थानीय बाजार, कुछ जगहें, नंदा देवी मंदिर आदि घूमने के बाद वापस पिथौरागढ़ के लिए करनी थी. इसी बीच दो-तीन बार चाय के मजेदार स्वाद के साथ नाश्ता भी आ गया. हँसी-मजाक के बीच जिस भाँग की चटनी की चर्चा पिथौरागढ़ में सेमीनार हॉल में हुई थी, वो चटनी यहाँ मुनस्यारी में नाश्ते की थाली में आलू के गरमागरम पराठे के साथ सजी दिख रही थी. होम स्टे वाले लड़के ने और हमारे ड्राईवर ने बताया कि इसे खाने से नशा नहीं होता है मगर अनजान जगह होने के कारण और सफ़र करने के कारण भाँग की चटनी का स्वाद नहीं लिया. हाँ, हल्की सी चख ली गई तो कुछ दानेदार जैसी समझ आई.


कमरे से निकल कर कार के साथ हम तीनों लोग अब सड़क पर थे. नंदा देवी मंदिर के परिसर से मुनस्यारी से दस-बारह किमी दूर स्थित खलिया टॉप दिखाई पड़ता है, ऐसा कुछ बताया गया मगर शायद तेज धूप होने के कारण आसपास बस बादल ही बादल दिखाई पड़ते रहे. नंदा देवी मंदिर के विशाल घासयुक्त मैदान में फोटो खींचने की तो अनुमति थी मगर ड्रोन से फोटोग्राफी करना प्रतिबंधित था. ऐसा क्यों है वहाँ, किसी से पूछा नहीं, सो बता नहीं सकते. इसी परिसर में बहुत सी झाड़ी लगी थीं, बहुत छोटे-छोटे लाल फल से लदी हुईं. फलों को तोड़कर देखा तो हलके गूदेदार समझ आये मगर अपरिचित फल होने के कारण उनको खाने की कोशिश भी नहीं की. हालाँकि अरुण ने कई बार प्रयास किया कि उस फल को अपने मुँह के हवाले कर ले मगर बाकी हम दोनों के मुखारविंद से निकलती तेज-तेज आवाजों ने उसका प्रयास सफल नहीं होने दिया. जब मंदिर के लगभग बाहर आने को हुए तो दो-तीन लोगों को उसी फल को झाड़ियों से तोड़-तोड़ कर खाते देखा. ये देखकर अरुण की हिम्मत बढ़ी और उसने भी लपक कर कई सारे फल चबा लिए. उन्हीं दोनों स्थानीय लोगों ने बताया कि ये पहाड़ी सेब है, स्थानीय भाषा में घिंघारू कहते हैं. कार में बैठे-बैठते कुछ का स्वाद लिया तो बेर की तरह, सेब की तरह का मिला-जुला स्वाद समझ आया.



घिंघारू या पहाड़ी सेब 

पिथौरागढ़ की तरफ लौटने की योजना दूसरी तरफ के रास्ते से थी मगर स्थानीय लोगों ने बताया कि उस सड़क पर लगातार काम चलने के कारण रास्ता ख़राब है. कार फँसने की आशंका है. ऐसे में जिस रास्ते मुनस्यारी आना हुआ था, उसी रास्ते वापस जाने का मन बना लिया. हाँ, मुनस्यारी में बाजार के और वहाँ स्थित जनजातीय विरासत संग्रहालय के नज़ारे भी ले आये. संग्रहालय के केयर टेकर जरूर घनघोर खुड़खुड़िया मिले. पता नहीं उस दिन वो अपने घर से लड़-झगड़ कर आये थे या उनका स्वभाव ही ऐसा था. बहरहाल, हम लोगों ने अपने खिलंदड़ स्वभाव के साथ ही उस छोटे से सांस्कृतिक निजी संग्रहालय को देखा. यह संग्रहालय भोटिया लोगों के इतिहास, संस्कृति और जीवनशैली के बारे में जानकारी देता है. ऊँची, खड़ी पहाड़ी पर बने इस संग्रहालय तक पहुँचने और वापस आने में दिमाग ठिकाने लग गए, महज सौ, डेढ़ सौ मीटर का रास्ता अन्तरिक्ष तक पहुँचने का रास्ता लग रहा था.








जिस रास्ते जाना हुआ था, उसी रास्ते से भले आना हुआ मगर नया सा अनुभव दे रहा था. लौटते में बिर्थी फॉल में ठहर कर आवभगत से भरपूर चाय-नाश्ता का स्वाद लिया गया. जगह-जगह बादलों, बारिश से परिचय करते हुए अंततः पिथौरागढ़ में होटल की शरण में आ गए. पिथौरागढ़ की अंतिम शाम को वहाँ का बाजार घूमने का मन बनाया मगर स्थानीय वाहन सुविधा न होने के चलते मन को वापस होटल के टैरेस की तरफ मोड़ लिया. अगली सुबह हल्द्वानी के लिए निकलना था. रास्ते में जागेश्वर धाम सहित रास्ते के कुछ दर्शनीय स्थलों को भी कैमरे में कैद करना था. पिछले कुछ दिनों की यात्रा के अनुभव, अगले दिन की प्लानिंग के साथ रात को गहराने दिया, नींद को आँखों तक आने दिया. 


पिथौरागढ़ की आखिरी सुबह, वहाँ के होटल की आखिरी चाय का स्वाद लेकर हल्द्वानी के लिए चल दिए. रात की ट्रेन होने के कारण योजना ये थी कि जागेश्वर धाम होते हुए कैंचीताल, भीमताल को भी निहार लिया जायेगा. देशकाल, परिस्थिति का ध्यान रखते हुए वापसी यात्रा की तैयारी की गई. अभी तक की यात्रा जितनी सहज, सुखद रही थी वापसी का ये एक दिन आशंकित कर रहा था. कैंचीताल, भीमताल की यात्रा पर आशंका छाई थी वहाँ लगने वाले जाम के कारण. जागेश्वर धाम को लेकर ड्राईवर ने बताया कि नीचे तक निजी वाहनों को नहीं जाने दिया जाता है. एक निश्चित स्थान के बाद वहाँ की समिति की गाड़ियों द्वारा जाया जा सकता है. ये बात अभी तक तो सशंकित नहीं किये थी मगर जब जानकारी हुई कि अगले दिन वहाँ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आना है तो लगा कि कहीं नीचे तक जाने ही न दिया जाये. बहरहाल, यात्रा को बिना किसी शंका के शुरू किया गया, उसी उत्साह-उमंग-हंगामे और हँसी-मजाक के साथ जैसे कि अभी तक सारी यात्रा रही. 



हल्द्वानी से पिथौरागढ़ आते समय टनकपुर वाला रास्ता पकड़ा था, वापसी अल्मोड़ा वाले रास्ते से की जा रही थी. इस रास्ते मिलने वाले पहाड़ों में कुछ अंतर समझ आया. अभी तक की यात्रा में मिलने वाले पहाड़ों पर अधिकतम में जलप्रवाह खूब मिला. इस रास्ते मिलने वाले पहाड़ हरियाली मिलने के बावजूद पानी से भीगे नहीं मिले. एक जगह पर पहाड़ लगभग सड़क पर ही रखा हुआ समझ आया. ड्राईवर ने बताया कि ये अभी पिछले महीने खिसक कर यहाँ सड़क पर आ गया है. गहरी खाई, लगातार साथ बहती सरजू नदी के चलते रास्ता सौन्दर्य से भरा मगर जोखिम वाला बना हुआ था. रास्ते भर चीड़, देवदार कतारबद्ध खड़े होकर विदाई देते नजर आये. पिछले कई दिन के सुहाने सफ़र को दिल-दिमाग में कैद किये वर्तमान अकादमिक सह घुमक्कड़ी सफ़र के अंतिम दिन वहाँ बिखरे प्राकृतिक सौन्दर्य को आँखों के सहारे, कैमरे के सहारे कैद किये जा रहे थे. रास्ते में दो-तीन जगह चाय-नाश्ते के लिए रुका गया तो भी फोटोग्राफी बंद नहीं हुई.



खिसक कर सड़क पर उतर आया पहाड़ 

रास्ते में सरजू नदी और रामगंगा नदी के संगम पर पड़ने वाले रामेश्वर मंदिर को देखा सड़क किनारे से देखा गया. कहा जाता है कि इसी स्थान पर शिव पूजन करने के बाद भगवान श्रीराम ने अपनी नर लीला को विराम दिया था. ड्राईवर ने बताया कि दक्षिण के रामेश्वरम जैसी ही इसकी मान्यता है. इसी तरह से सड़क किनारे खड़े होकर रास्ते में पड़ने वाले डोल आश्रम को भी देखा गया. अल्मोड़ा जिले में घने जंगलों के बीच योग और ध्यान के उद्देश्य से इसे बनाया गया है. समयाभाव के कारण दोनों स्थलों को दूर सड़क से निहारने के साथ आगे बढ़ चले. समय अपनी गति से भाग रहा था और हमारी कार अपनी नियंत्रित गति से हल्द्वानी के लिए चली जा रही थी. रास्ते भर पहाड़, बादल, चीड़, देवदार विदाई समारोह सा करते रहे, मिलते रहे.


डोल आश्रम (अल्मोड़ा)

पहाड़ों की शांत यात्रा के बाद अचानक से भीड़ नजर आने लगी. सड़क पर ट्रैफिक भी कुछ अधिक हो गया. वाहनों की, लोगों की गति में भी परिवर्तन सा दिखाई दिया. पहाड़ों की ढलान भी कम से कमतर होते हुए कुछ समतल सी लगने लगी. कई दिन से झरनों की शक्ल में बहता पानी यहाँ झील का स्थिर रूप धारण किये था. योजना में होने के बाद भी नैनीताल की यात्रा भले न हो पाई हो मगर नैनीताल जनपद की यात्रा अवश्य कर ली थी. सड़क के बाँए तरफ स्थिर सी, शांत झील के किनारे गाड़ी रुकवाकर झील किनारे बनी सीढ़ियों पर हम तीनों लोग विराजमान हो गए. संध्याकाल में सुनहली धूप की रंगत में भीमताल की झील सुहानी लग रही थी. नावें किनारे पर लगी हुई थीं मगर उनकी यात्रा करने वाले नदारद थे. पूरी झील में दो-तीन नावें ही इधर से उधर डोल रही थीं. पंछियों, मछलियों, जल-तरंगों के साथ कुछ समय बिताने के बाद खुद को तरोताजा महसूस किया और फिर हल्द्वानी के लिए चल दिए. पर्याप्त समय के अंतर पर हम लोग हल्द्वानी रेलवे स्टेशन पर खड़े थे. सुखद यात्रा के इन पलों में ड्राईवर का सहज स्वभाव का होना भी सोने पर सुहागा रहा. हम लोगों का सामान प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचाने के समय वह भी भावुक हो उठा. फिर मिलने का आश्वासन लेने-देने के साथ ही हम लोग प्लेटफ़ॉर्म पर सुकून से बैठने की जगह तलाशने लगे.



भीमताल झील (नैनीताल)


बहुत ही आराम से, बिना किसी परेशानी के संपन्न इस यात्रा में इस अंतिम दिन जागेश्वर धाम मंदिर की यात्रा सबसे मजेदार और आश्चर्यजनक रही. मजेदार इसलिए क्योंकि जैसा कि शुरू में ही आपको बताया कि ड्राईवर सशंकित था कि मोदी जी के आने के चलते हम लोगों को नीचे जाने को भी मिलेगा या नहीं? जागेश्वर धाम के लिए जाने वाले रास्ते पर गाड़ी मुड़ते ही जगह-जगह पुलिस वाले, सुरक्षाकर्मी नजर आने लगे. जगह-जगह बैरिकेडिंग के साथ सभी मुस्तैदी से अपने-अपने काम में लगे हुए थे. ड्राईवर ने दो-तीन जगह पुलिस वालों को, सुरक्षाकर्मियों को देखकर कार रोकने की कोशिश की तो उससे कहा कि वह कार अपनी निश्चित स्पीड पर चलाता रहे. जब तक रोका न जाये कहीं भी न गाड़ी धीमी करे और न ही किनारे लगाते हुए रोके. चूँकि ड्राईवर वहाँ आता रहता था, इसलिए उसे जानकारी थी कि समिति के लोग कार नीचे नहीं जाने देंगे. एक-दो जगह उसने बेरिकेंडिंग देखकर कार को किनारे रोकने की कोशिश भी की मगर उसको थोड़ा तेज आवाज़ में बोलकर गाड़ी न धीमे करने, न रोकने को कहा तो वह फिर गाड़ी को आराम से चलाता रहा.


जैसे-जैसे हम लोग मंदिर के नजदीक बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे वहाँ के इंतजाम, वहाँ की व्यवस्था चाक-चौबंद दिखाई दे रही थी. सुरक्षाकर्मियों की संख्या, उनकी मुस्तैदी, अस्त्र-शस्त्र, सुरक्षा यंत्र, तामझाम भी बढ़ता नजर आ रहा था. सड़क किनारे गाड़ियों की कतार लगी हुई थी. प्रशासन की, स्थानीय नेताओं की कारें कतारबद्ध सड़क के दोनों तरफ का सौन्दर्य बढ़ा रही थीं. जगह-जगह लगी बेरिकेडिंग पर खड़े सुरक्षाकर्मियों की नजर कार की तरफ उठती और फिर वे अपने काम में लग जाते. मन में कई बार आया कि हमारी कार न तो समिति वालों के द्वारा रोकी गई और न ही किसी पुलिस वाले द्वारा, आखिर ऐसा क्या? एकबारगी लगा कि आखिर यहाँ की पुलिस किसी समय उत्तर प्रदेश वाली ही पुलिस थी, ये अचानक से ऐसा हृदय परिवर्तन कैसे हो गया? बहरहाल, इसी सब सोचा-विचारी में और इस स्थिति को स्वीकार्यता देने की तैयारी के साथ कि हमारी कार कहीं भी, कभी भी रोकी जा सकती है हम लोग मंदिर के मुख्यद्वार के सामने आ गए. आश्चर्य के साथ हम तीनों लोगों ने एक-दूसरे को निहारा, ड्राईवर ने भी आश्चर्य से हमारी तरफ देखा. बिना कुछ सोचे-समझे तुरत-फुरत में हम लोग कार से उतरे और ड्राईवर को कार को पार्किंग में लगाने के लिए आगे बढ़ गया.



जागेश्वर धाम मंदिर (अल्मोड़ा)

मंदिर की सीढ़ियों से लेकर अन्दर समूचे परिसर में इक्का-दुक्का नागरिकों के अलावा सुरक्षाकर्मी ही सुरक्षाकर्मी दिखाई दे रहे थे. इसके अलावा वहाँ की व्यवस्था बनाते हुए कारीगर, मजदूर. सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आने पर हमारे लिए आगे जा पाना संभव नहीं था क्योंकि जूते वहीं उतारने पड़ते. हमने अपना कैमरा सँभाला, रेड कार्पेट बिछाने में सुस्ती दिखाने वाले के हालचाल लिए, एक-दो सुरक्षाकर्मियों से हलकी-फुलकी जानकारी ली और हमारे दोनों साथी मंदिर दर्शन के साथ-साथ पूजन सामग्री सहित मंदिर प्रांगण में उतर गए. यथास्थिति पूजन के बाद वापस आने पर हम लोग जब कार में बैठ कर चल दिए तो आपस में इसी बात पर खूब हँसी-मजाक हुआ कि हम लोगों की कार मंदिर के मुख्य द्वार तक न रोकी गई.




बहरहाल, इसी तरह से हँसते-गाते-मौज-मजाक के साथ हल्द्वानी के रेलवे स्टेशन पर समय गुजारने के बाद ट्रेन के सहारे वापस लखनऊ उतरे. जहाँ से घर का चाय-नाश्ता करने के बाद, अपने पुराने साथी दुर्गेश जी से मुलाकात के बाद अरुण की उसी कार से वापस उरई आ गए, जिस कार से लखनऊ पहुँचे थे. अकादमिक यात्रा के साथ बनी इस पर्यटन यात्रा से बहुत कुछ नया देखने-सीखने को मिला. नए लोग मिले, पुराने लोगों से पहचान का नवीनीकरण हुआ. ऐसी सुखद, दोस्ताना यात्राएँ भविष्य में भी होती रहेंगी, सभी से मुलाकातें होती रहेंगी, ऐसी अपेक्षा है.  



पिथौरागढ़ की प्रसिद्ध बॉल मिठाई के साथ पहाड़ों, नदियों से फिर मिलने के वादे सहित विदा 


(इतिश्री)